मनी और हेल्थ प्लानिंग में क्यों कमजोर हैं हिन्दी पत्रकार?

 मनी और हेल्थ प्लानिंग में क्यों कमजोर हैं हिन्दी पत्रकार?

अधिकतर पत्रकार अपनी सेहत के प्रति भी चौकस नहीं रहते

पत्रकारिता में बीते दो-ढ़ाई दशकों से मनी प्लानिंग और निवेश मेरा प्रिय लेखन-विषय रहा है। मैं हमेशा हैरान रहा कि पूरे देश को राह दिखाने वाले पत्रकारों में से बहुतरे को मैंने मनी प्लानिंग में बेहद कमजोर पाया। अंग्रेजी पत्रकारों की तुलना में हिन्दी पत्रकार बचत, जीवन-मेडिकल बीमा, पीपीएफ खातों और पीएफ अंशदान के बारे में लापरवाह हैं। इस पर सरकार या पत्रकार संगठन एक सर्वें करा ले तो पता लगेगा कि देश के बहुत सारे पत्रकार जिंदगी में अर्थ के महत्व को एकदम नहीं समझते। हाल ही ऑनलाइन जॉब पोर्टल मॉन्स्टर ने देश का ताजा सैलरी इन्डेक्स जारी किया है। इस इन्डेक्स के मुताबिक देश में पत्रकारों की औसत तनख़्वाह 43,849 रुपये प्रतिमाह है। (वैसे औसत का खेल गड़बड़ है। इसमें करोड़ों का पैकज पाने वाले संपादकों और कम वेतन पाने वाले स्ट्रिंगर का वेतन साथ जोड़ दिया जाता है।) इस औसत वेतन से आप खुद अंदाजा लगाइए कि पत्रकारों की माली हालत कैसे सुधरेगी? आखिर वे निवेश के लिए कहां से रकम लाएं? बीमा के लिए पैसे का बंदोबस्त कैसे करें?

जिस देश में पत्रकारों की नियमित नौकरी की चिंता सरकार को नहीं है वहां उनकी पेंशन की चिंता कौन करे? रिटायरमेंट के बाद मेरे पिताजी को सरकार से जितनी पेंशन मिलती थी उतना वेतन दस-बीस साल का अनुभव होने पर भी पत्रकार को नहीं मिलता…पर असम सरकार ने पत्रकारों के लिए सराहनीय रिटायरमेंट पेंशन योजना लागू की है। श्रमजीवी और मान्यता प्राप्त पत्रकारों के लिए 8,000 रुपये प्रति माह पेंशन देने का प्रावधान है। इसी तरह तमिलनाडु में इसी महीने पत्रकारों के लिए पेंशन बढ़ाने की घोषणा की गई। मौजूदा आर्थिक हालात को देखते हुए पत्रकाराें की पेंशन आठ हजार से बढ़ाकर 10 हजार रुपये प्रतिमाह की जा रही है। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने श्रमजीवी पत्रकारों की सुध ली तो मैं भी लखनऊ पोस्टिंग के दौरान इस पेंशन योजना का लाभकारी बन गया। तब मैं राष्ट्रीय सहारा में था। पर बहुत सारे पत्रकारों को ऐसी पेंशन भी नसीब नहीं है।

यह सच है कि महानगरों में काम करने वाले बहुतेरे पत्रकार जैसे-तैसे आर्थिक रूप से संपन्न हैं, मगर छोटे शहरों व कस्बों में काम करने वाले पत्रकारों की दशा आज इतनी दयनीय है कि उनकी कमाई से परिवार के लोगों को दो वक्त का खाना मिल जाए, वही बहुत है। हां, यह बात अलग है कि कुछ पत्रकार गलत तरीके से पैसे कमाकर आर्थिक रूप से संपन्न हो रहे है, लेकिन ज्यादातर पत्रकारों को प्रेस की स्वतंत्रता के बावजूद न केवल कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है, बल्कि उनकी जान पर भी खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है।

मुझे लगता है कि मीडिया मालिक जान-बूझकर चाहते हैं कि पत्रकारों को मनी मैनेजमेंट की समझ कभी नहीं आए नहीं तो वे बेहतर पैकेज की मांग पर जोर डालेंगे। दैनिक जागरण देश का सबसे बड़ा अखबार होने का दावा करता है। जब मैंने वहां नौकरी शुरू की तो पता चला कि वहां तो बहुतेरे पत्रकार आईटी रिटर्न ही नहीं भरते हैं। कंपनी को भी इसकी फिक्र नहीं थी। यही हाल राष्ट्रीय सहारा समेत तमाम अखबारों में था। (पर लोकमत में आईटी रिटर्न के प्रति पत्रकारों में चेतना थी।) मैंने कुछ पत्रकार साथियों को समझाया कि आईटी रिटर्न भरने के आधार पर बच्चों की उच्च शिक्षा के लिए एजुकेशन लोन लिया, कार खरीदी। होम लोन भी लिया जिसकी किस्त अब भी भर रहा हूं। पर अधिकतर पत्रकार न आईटी रिटर्न भरना चाहते थे और न ही लोन लेना चाहते थे। पर मैंने उन्हें इसका महत्व बताने का अभियान जारी रखा। जब भी काम से फुर्सत मिलती तो मैं अपने जूनियर साथियों को अकेले या ग्रुप में इसका महत्व समझाता। आधे से अधिक साथियों पर इसका असर पड़ा और वे आईटी रिटर्न भरने लगे। इससे बहुतेरे पत्रकारों की आर्थिक जिंदगी में बदलाव आने लगा।

इसका लाभ उन्हें यह मिला कि बैंक ने इनमें से कई को आईटी रिटर्न और मौजूदा वेतन के आधार पर फ्लैट खरीदने पर आसानी से होम लोन दे दिया। तब गाजियाबाद के इंदिरापुरम, वैशाली और वसुंधरा में बहुत सारे पत्रकारों ने तीन से पांच लाख रुपये में फ्लैट खरीद लिए जिसकी कीमत 14-15 साल में छह-सात गुना तक बढ़ गई।

पर इधर दो-तीन साल से एनसीआर में हमारे कुछ पत्रकार साथी होम लेने के बाद भी बिल्डरों से फ्लैट न मिलने के कारण बहुत ही चिंतित हैं। उनकी गाढ़ी कमाई और होम लोन की किश्त बिल्डर डुबाने पर तुले हुए हैं। खेद है कि सरकार उनकी मदद भी नहीं करना चाहती। इन ईमानदार पत्रकारों का भरोसा टूट रहा है कि आम्रपाली, गार्डेनिया या सुपरटेक सरीखी रियल एस्टेट कंपनियां उन्हें इस जन्म में फ्लैट का पजेशन देंगी। ये पत्रकार बैंक की किस्त छह-सात साल से भर रहे हैं पर उन्हें फ्लैट नहीं मिल रहा। इस कारण मैं अब पत्रकारों को “रेडी टू मूव” फ्लैट लेने की सलाह देता हूं। मैं अब इस बात पर भी जोर देता हूं कि अभी चार-पांच साल तक फ्लैट खरीदने की योजना रोक दें तो इससे उनका भला होगा। एनसीआर में अधिक फ्लैट बन जाने के कारण आजकल यूं ही फ्लैट का किराया सस्ता हो गया है।

मैं पहले भी कह चुका हूं कि हिन्दी के अधिकतर पत्रकार अपनी सेहत के प्रति भी चौकस नहीं रहते। अखबार मालिकों और टीवी कंपनियों को भी उनके हेल्थ की चिंता नहीं। निरंतर रात्रि ड्यूटी कर तमाम संस्करण निकालने से उनकी सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ता है। पर भला इसकी चिंता किसे? दस साल पहले दैनिक जागरण के नोएडा स्थित मुख्यालय में सीजीएम निशीकांत ठाकुर की पहल पर योगा सिखाने के लिए सप्ताह में शनिवार को एक गुरु आते थे। पर मैंने पाया कि कुछ पत्रकार योग-कक्षाओं में रुचि नहीं लेते थे जबकि उनके लिए यह फायदेमंद है। इससे न केवल उनकी सेहत और स्मरण शक्ति बढ़ती बल्कि रक्त की धमनियां भी स्वच्छ होतीं। धीरे-धीरे योग गुरु ने दैनिक जागरण में आना बंद कर दिया और पत्रकार भी योग करना भूल गए। पर मेरी निजी जानकारी है कि इधर 10-15 फीसदी पत्रकारों में चेतना आई है और वे और उनकी पत्नी योग कर अपनी सेहत ठीक रखने का प्रयास करते हैं। मीडिया संसंथानों में मैंने हेल्थ कैम्प का आयोजन बहुत कम देखा।

नौकरी के दौरान कुछ पत्रकारों की असमय मौत भी मैंने देखी। लोकमत, सहारा, जागरण और अमर उजाला में नौकरी में सेवारत पत्रकारों की मौत पर एक दिन का वेतन अंशदान में देने का रिवाज है। इससे पत्रकारों के परिवार का कुछ भला हो जाता है। पर बहुतेरे पत्रकार जीवन बीमा नहीं कराते इससे उनके परिवार को बीमा की एकमुश्त रकम नहीं मिल पाती। मेरे वक्त में पाटलिपुत्र टाइम्स में पीएफ का अंशदान कभी जमा ही नहीं हुआ।हां, जागरण, लोकमत, टाइम्स, हिन्दुस्तान में पीएफ की कटौती वाले पत्रकारों को अब रिटायर होने या मौत होने पर दावेदार को पीएफ की एक मुश्त रकम और लगभग तीन हजार मासिक पेंशन मिल जाती है। कुछ मीडियां कंपनियां अपने पत्रकारों और उनके जीवनसाथी का पिछले 15-20 साल से मेडिकल बीमा भी कर रही हैं। पर यह मेडिकल बीमा 1 से 5 लाख से अधिक नहीं है। अग्रणी मीडिया कंपनियां कम से कम पांच साल नौकरी करने पर ग्रेच्युटी का भी भुगतान कर देती। पर 90 फीसदी मीडिया संस्थान ऐसा नहीं करते। अगर कोई सरकार से मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं तो सरकार उन्हें आधे रेट पर रेल टिकट देने के साथ ही सीजीएचएस की मेडिकल सुविधा भी देती है। पर यह सुविधा रिपोर्टर और संपादक को ही नसीब है।

पत्रकारों को नौकरी कब मिले और कब चली जाए, कोई नहीं जानता। मीडिया को सही मायने में स्वतंत्र कैसे बनाया जाए, देश की कार्यपालिका इस पर गंभीरता से सोचे ही नहीं उसको अमल में भी लाए। भोपाल के पत्रकार शिवराज सिंह की प्रतिभावान बेटी ने परिवार की आर्थिक तंगी से परेशान होकर खुदकुशी कर ली। वह आठवीं की छात्रा थी। उसके पत्रकार पिता को कुछ दिन पहले एक प्रमुख दैनिक अखबार की नौकरी से निकाल दिया गया। इसके बाद से वे आर्थिक तंगी से गुजर रहे थे। स्कूल की टॉपर उनकी बेटी पिता पर बोझ नहीं बनना चाहती थी, इसलिए उसने जान दे दी। पत्रकारों के कमजोर मनी मैनेजमेंट का खामियाजा उनके परिवार को भुगतना पड़ता है। सवाल है कि इस पिता ने शुरू से ही मनी मैनेजमेंट प्लान क्यों नहीं बनाया ताकि नौकरी छूटने पर बच्चों की परवरिश मुश्किल न हो। अगर वह इस मामले में कमजोर थे तो उन्हें शादी नहीं करनी चाहिए थी। पर मेरे इस लेख का यह आशय नहीं है कि सभी पत्रकार मनी मैनेजमेंट में कमजोर होने के कारण परिवार को गहरे मुसीबत में ढकेल देते होंगे। कुछ पत्रकार अकेले घर नहीं चलाते। उनके जीवनसाथी भी नौकरी या बिजनेस कर घर को आर्थिक मजबूती देते, इससे कभी नौकरी छूट जाए या रिटायर्ड हो जाएं तो उन्हें आर्थिक तंगी से नहीं गुजरना पड़ता। पर ऐसे पत्रकारों की संख्या दस फीसदी भी नहीं है।

लेखक: Roy Tapan Bharati

AVS POST Bureau

http://avspost.com

Leave a Reply

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

Bhool bhulaiyaa 3 Teaser and Trailer सावित्रीबाई फुले(Savitribai Phule) महिलाओं को प्रगति के मार्ग पर लाने वाली एक मजबूत सोच