Dr Rajendra Prasad : जीवन, योगदान और विरासत की पूरी कहानी

Dr Rajendra Prasad
भारतीय इतिहास में एक ऐसा नाम जो स्वर्णाक्षरों में अंकित है — Dr Rajendra Prasad। वे न केवल भारत के पहले राष्ट्रपति थे, बल्कि संविधान सभा के अध्यक्ष और स्वतंत्रता संग्राम के समर्पित योद्धा भी थे। उनका संपूर्ण जीवन भारतीय संस्कृति, सादगी और राष्ट्रभक्ति की एक प्रेरणादायक मिसाल है, जहाँ ज्ञान, विनम्रता और सेवा भाव का अद्भुत मेल देखने को मिलता है।
बिहार की माटी से उठकर राष्ट्रीय पटल तक
3 दिसंबर 1884 को बिहार के सिवान जिले के जीरादेई गाँव में जन्मे राजेंद्र प्रसाद का बचपन गंगा-घाटी की सरलता और संस्कारों से ओत-प्रोत था। पिता महादेव सहाय की संस्कृतनिष्ठा और माता कमलेश्वरी देवी की धार्मिक छवि ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा।

- प्रतिभा के धनी : 12 वर्ष की आयु में ही फारसी परीक्षा में जिले में प्रथम स्थान प्राप्त किया
- अकैडमिक एक्सीलेंस : कोलकाता विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्राप्त करते समय स्वर्ण पदक जीता
- अध्यापन से अधिवक्ता तक : प्रारंभ में अंग्रेजी प्रोफेसर बने, परंतु बाद में कानूनी पेशे को चुना
गांधीजी के सिद्धांतों से प्रभावित एक क्रांतिदृष्टा
Dr Rajendra Prasad : 1916 में महात्मा गांधी से मिलने के बाद उनके जीवन ने नया मोड़ लिया। चंपारण सत्याग्रह (1917) में उनकी भूमिका ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ किसानों के संघर्ष को नई दिशा दी।
स्वतंत्रता संग्राम में मील के पत्थर
1920 : असहयोग आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए वकालत छोड़ी
1934 : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए
1942 : भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान तीन वर्ष जेल में बिताए

संविधान निर्माता से राष्ट्रपति तक का सफर
1946 में संविधान सभा के अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने भारतीय गणतंत्र की नींव रखी। 26 जनवरी 1950 को जब देश गणतंत्र बना, तब वे प्रथम राष्ट्रपति चुने गए।
राष्ट्रपति पद पर उल्लेखनीय
- सर्वाधिक 12 वर्ष तक राष्ट्रपति पद पर रहने का रिकॉर्ड
- नेहरू मंत्रिमंडल के साथ सहयोगपूर्ण संबंधों का निर्वाह
- 1957 में निर्विरोध पुनः निर्वाचित होने वाले एकमात्र राष्ट्रपति
सादा जीवन, उच्च विचार का प्रतीक
राष्ट्रपति भवन में रहते हुए भी उन्होंने खादी की धोती-कुर्ता और सादगी भरा जीवन जिया। एक घटना प्रसिद्ध है जब उन्होंने राष्ट्रपति भवन में गाय के गोबर से लिपाई करने की अनुमति दी, क्योंकि यह भारतीय परंपरा का हिस्सा था।
साहित्य एवं चिंतन की देन
उनकी रचनाएँ भारतीय चेतना को समझने का द्वार हैं:
- “भारत विभाजन”: देश के विभाजन पर ऐतिहासिक विश्लेषण
- “सत्याग्रह एट चंपारण”: स्वतंत्रता संग्राम का दस्तावेजीकरण
- “आत्मकथा”: एक युगदृष्टा का आत्मविश्लेषण

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विरासत और प्रासंगिकता
28 फरवरी 1963 को उनका निधन हो गया, परंतु उनके सिद्धांत आज भी प्रेरणा देते हैं। पटना स्थित सदाकत आश्रम उनके विचारों का जीवंत केंद्र है।
“हमें ऐसा भारत बनाना है जहाँ गरीब से गरीब व्यक्ति को भी न्याय मिले।”
आज जब भारत विश्व मंच पर अपनी पहचान बना रहा है, डॉ. प्रसाद के सादगी, समर्पण और संवैधानिक मूल्यों पर चलना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।