કર્ણાવતી મહાનગરમાં સંસ્કૃતભારતી વડે સંસ્કૃતનુંરાગી સંમેલનમ કાર્યક્રમ યોજાયો
છઠ પૂજામાં છઠી મૈયાની કેમ પૂજા કરવામાં આવે છે, ડૂબતા સૂરજને અર્ધ શા માટે ?
Manjit Thakur, Delhi
छठ में गुहार छठी मइया की और पूजा भगवान सूर्य की. क्यों?
—————————————————
छठ का त्योहार आते ही देश के विभिन्न हिस्सों में लोग यह सवाल पूछने लग जाते हैं कि आखिर बिहार, झारखंड, पूर्वांचल या आसपास के क्षेत्र में ही छठ क्यों मनाया जाता है?
यह पर्व कब से मनाया जा रहा है और इसकी सर्वव्यापकता का राज क्या है? छठ पर्व में कुछ बातें ऐसी हैं, जिन पर बारीकी से गौर करने की जरूरत है. पहली बात कि यह त्योहार सूर्योपासना का त्योहार है और इसमें उगते सूरज की ही नहीं, डूबते सूर्य की भी आराधना की जाती है.
इस त्योहार को मनाने के लिए किसी पुरोहित या कर्मकांड की जरूरत नहीं होती है और इस त्योहार में जातिगत रूढ़ियों से दूर होकर व्यापक समाज की भागीदारी होती है. इसमें प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं, फल और उत्पाद जरूरी तौर पर स्थानीय प्रकृति के होते हैं.
ऐसे में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह पर्व ‘सभ्यता-पूर्व’ पर्व है और इसकी जड़ें उस समय तक जाती हैं, जब समाज अपने ठोस रूप में संगठित होना शुरू नहीं हुआ था. शायद इसलिए भी इसमें सभी जाति-वर्ण के लोग एक जैसी श्रद्धा से भाग लेते हैं.
देश के पूर्वी हिस्से खासकर मिथिला या देश के अन्य हिस्सों में ऐसे पर्व कई हैं, जूड़-शीतल, होली या खेती-किसानी से जुड़े बैशाखी जैसे त्योहार. ऐसे पर्वों को बाद में वैदिक साहित्यों से भी जोड़ दिया गया या उसमें उसे शामिल कर लिया गया हो-तो कोई आश्चर्य नहीं. छठ को भी कई लोग पौराणिक आख्यानों से जोड़ते हैं, पर पौरोहित्य कर्म या कम कर्मकांड साबित करते हैं कि छठ हमारी शास्त्रीय परंपरा का पर्व न होकर जनमानस से उपजा त्योहार है.
प्रसिद्ध साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में संकेत देते हैं कि हो सकता है इस प्रकार के पर्व उन अनार्य और जनजातीय महिलाओं द्वारा आर्यों की संस्कृति में प्रविष्ट किए गए हों, जिनसे विवाह आर्य लोगों ने इन क्षेत्रों में आगमन के बाद किया था. लेकिन इस तर्क में एक पेच है, जनजातीय लोग प्रकृतिपूजक तो थे, लेकिन सूर्योपासक भी थे इस पर संदेह है! सूर्य तो आर्यों के देवता थे!
पेंगुइन हिंदी के संपादक और सामाजिक विश्लेषक सुशांत झा के मुताबिक, “छठ से जुड़ा एक सिद्धांत शाकलद्वीपी ब्राह्मणों से भी संबद्ध है. शाकलद्वीपी ब्राह्मण बिहार के मगध और भोजपुर इलाकों में रहते हैं. संभवत: कुछ पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी. ये शाकलद्पीवी कौन थे?”
शाकलदीपी या शकद्वीपी ब्राह्मण वे थे जो शक द्वीप पर निवास करते थे जिसे आधुनिक समय में ईरान कहा जाता है. कहते हैं कि सुदूर अतीत में कभी ये लोग मगध से ही शक द्वीप को गए थे और इसीलिए इन्हें मग भी कहा गया. लैटिन ग्रंथों में ईरान के प्राचीन निवासियों की एक जाति को मैगिज भी कहा गया है जो सूर्य के उपासक थे.
गौर कीजिए कि ईरानी मूल के पारसी भी सूर्य के उपासक हैं. शाकलदीपी ब्राह्मणओं के कुलगीत को मगोपाख्यान कहा जाता है. लेकिन सवाल ये है कि ये शाकलदीपी ब्राह्मण ईरान से बिहार कैसे आए?
सुशांत एक किस्सा सुनाते हैं कि कृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हुआ तो वैद्यों ने उन्हें सूर्य की आराधना करने के लिए एक यज्ञ करने की सलाह दी. कुष्ठ रोग से जुड़ी भ्रांतियों की वजह से स्थानीय ब्राह्मणों ने इससे इनकार कर दिया तो कृष्ण ने शक द्वीप के ब्राह्मणों को द्वारका आमंत्रित किया जो सूर्य के उपासक भी थे और वैद्य भी. ऐसा भौगोलिक रूप से भी सही लगता है. कहते हैं कि साम्ब का रोग उन्होंने अपनी युक्तियों से दूर कर दिया और वहीं बस गए. इस प्रकार सूर्योपासक एक वर्ग गुजरात में बस गया.
लेकिन कालांतर में जब द्वारका का पतन हुआ और वह समुद्र में विलीन हो गई, तो ये शक-द्वीपीय ब्राह्मण मगध के इलाकों में बस गए जिसका महाभारत काल के बाद पुन: उत्थान हो रहा था. ये वहीं ब्राह्मण हैं जिनकी वजह से गंगा के दक्षिण भी सूर्य मंदिरों की एक श्रृंखला बनी और उनके पुरोहित ये शाकलदीपी ही होते हैं.
सुशांत झा एक और मार्के की बात कहते हैं, “संभवत: सूर्योपासन और छठ पूजा उस समय से शुरू हुई हो लेकिन यहां पर भी एक पेच है. ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा शुरू की गई सूर्योपासना में वैदिक मंत्र और कर्मकांड जरूर होने चाहिए थे लेकिन छठ पूजा में ऐसा नहीं है! एक बात और, गुजरात के भरुच में जो पहले भृगुकच्छ था, नर्मदा के तट पर है, और वहां सूर्य और उनकी पत्नी ऊषा की पूजा का बड़ा केंद्र था.”
वहां बाद में गुर्जर सम्राट जयभट्ट द्वितीय ने एक विशाल सूर्य मंदिर की स्थापना भी की. गुर्जर राजा-गण वैसे भी बड़े सूर्योपासक हुए. यानी गुजरात में बसे शाकलदीपी ब्राह्मणों की वजह से वहां सूर्योपासना प्रचलित हुई जो बाद में मगध आई.
हाल के कुछ शोध बताते हैं कि सूर्य मंदिरों की श्रृंखला गंगा से उत्तर मिथिला में थी. गंगा से दक्षिण ये श्रृंखला संभवत: उड़ीसा के कोणार्क तक पहुंच गई थी.
औरंगाबाद का देव, पटना का पुन्डारक (प्राचीन नाम पुण्यार्क) और झारखंड में कई जगह मिल रहे सूर्य मंदिर इस बात का संकेत करते हैं. ये बात सच है कि छठ पूजा सिर्फ मगध में ही नहीं होती, बल्कि मिथिला में भी उसी श्रद्धा से मनाई जाती है. सवाल यह है कि मिथिला में सूर्योपासना कब से शुरू हुई?
सवाल यह भी है क्या कर्मकांडी विधि से सूर्योपासना और लोकाचार के रूप में छठ के तौर पर मनाई जाने वाली नदी और सूर्य की पूजा में कितनी साम्यता है और कितना अंतर है?
महाभारत और विभिन्न पुराणों के आधार पर लिखे अपने ग्रंथ युगांधर में शिवाजी सावंत लिखते हैं, “एक बार स्यमंतक मणि को लेकर श्रीकृष्ण और बलराम में मतभेद हुआ और बलराम अपने समर्थकों के समूह के साथ मिथिला में आकर रहने लगे.
श्रीकृष्ण ने जब प्राग्ज्योतिषपुर (वर्तमान गुवाहाटी और आसपास का इलाका) के राजा नरकासुर का वध किया तो फिर द्वारका वापसी के दरम्यान उन्होंने बलराम से मिथिला में मुलाकात की और उन्हें वापस लौटने के लिए मनाया. कहते हैं कि बलराम के बहुत सारे साथी उस प्रदेश में बस गए!”
क्या उस इलाके में यादवों की सघन आबादी का उस पौराणिक घटना से कोई संबंध है? क्या उस इलाके की भाषा मैथिली और गुजराती में कुछ समानता होने का यह कारण हो सकता है?
क्या मैथिली, बांगला, नेपाली और गुजराती में कुछ सामानता के सूत्र उस पौराणिक घटना में निहित हो सकते हैं? यह गहन शोध का विषय है. हालांकि मौजूदा इतिहास लेखन लोक-कथाओं और लोकगीतों को बतौर साक्ष्य नकारता है, लेकिन विद्वानों को इस दिशा में भी काम करना चाहिए.
सामा चकेबा और साम्ब का मिथिला से संबंध
छठ पूजा के आसपास ही मिथिला में सामा-चकेबा का लोकपर्व मनाया जाता है जो भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक है. सामा (या श्यामा!) कृष्ण की बेटी थी और साम्ब की बहन. सामा पर मंत्री चुरक (जिसे चुगला कहा गया) ने एक ऋषि से अवैध संबंध का आरोप लगाया जिसपर कृष्ण ने सामा को पक्षी बनने का श्राप दे दिया.
बाद में साम्ब ने तपस्या कर कृष्ण को इस बात के लिए मनाया कि वे सामा को श्राप मुक्त करे.
कृष्ण ने कहा कि सामा साल में एक बार आठ दिनों के लिए मनुष्य रूप में सामने आएगी और उसी दौरान सामा-चकेबा का पर्व मनाया जाता है. लोकगीतों में मंत्री चुरक (चुगला) की निंदा की जाती है और उसकी मूंछ में आग लगा दी जाती है.
गौरतलब है कि सामा-चकेबा छठ के खरना दिन शुरू होता है और पूर्णिमा दिन खत्म. सामा-चकेबा मिथिला में ही मनाया जाता है और छठ व्रत के बारे में कहते हैं कि असाध्य और गंभीर रोग जैसे कुष्ठ, विकलांगता, दाग, बदनामी, आपदा इत्यादि को दूर करने की प्रार्थना की जाती है.
इससे पहले हम वर्णन कर चुके हैं कि साम्ब को कुष्ठ रोग था जिसके लिए शाकलदीपी ब्राह्मणों को शक द्वीप से बुलाया गया था और जो बाद में मगध में बसे या फिर से बसे!
यहां कुछ न कुछ ऐसा है जो साम्ब, कुष्ठ रोग, गुजरात (द्वारका), शाकलदीपी ब्राह्मण, सूर्य-मंदिरों की श्रृंखला, छठ और सामा-चकेबा में एक महीन संबंध दर्शाता है. हालांकि यह प्रश्न अब भी अनुतरित है कि सामा-चकेबा का त्योहार सिर्फ मिथिला में ही क्यों मनाया जाता है, गुजरात या ब्रज के इलाकों में क्यों नहीं!
क्या ब्रज या गुजरात के लोकगीतों या देश के अन्य इलाके में इस तरह के किसी पर्व के संकेत हैं? संभवत: ये संकेत अभी तक नहीं मिले हैं.
लेकिन सबसे बड़ी बात ये कि अगर शाकलदीपी ब्राह्मणों की इसमें भूमिका थी या उनके प्रभाव में परवर्ती राजाओं ने सूर्यमंदिरों का निर्माण कराया तो एक सवाल फिर भी अनुतरित है: छठ पूजा में मंत्रों-कर्मकांडों और पुरोहितो का अभाव और समाज के हर वर्ग द्वारा इसे श्रद्धा से मनाया जाना.
हालांकि एक धारणा बौद्ध धर्म से भी संबंधित है. सूर्य, बौद्ध और हिंदू परंपराओं में भी मिलते हैं और कई सारे सूर्य मंदिर उन राजाओं द्वारा बनवाए प्रतीत होते हैं जो बौद्ध भी थे. तो क्या सूर्योपासना की कोई ऐसी विधि विकसित कर दी गई जो पुरोहित और कर्मकांड-विहीन थी और जिसने बाद में छठ का रूप ले लिया?
एक कथा के मुताबिक, बहुत संभव है कि छठ पूजा अंग-राज की कर्ण की वजह से लोक-पर्व में परिवर्तित हो गया हो.
कर्ण को जीवनभर सूत-पूत्र का लांछन झेलना पड़ा था और उन्होंने सूर्य से खुद को मान्यता देने की प्रार्थना की थी ऐसा सूर्य ने किया भी. कर्ण का चरित्र एक विद्रोह का चरित्र है और ऐसा संभव है कि परवर्ती पीढ़ियों ने उस विद्रोह को एक प्रतीक के रूप में पुरोहित-विहीन और कर्मकांड विहीन कर लिया हो.
छठ पूजा में वही वस्तुएं, फल या उत्पाद प्रयोग में लाए जाते हैं जो स्थानीय हैं. लेकिन उस दृष्टि से देखने पर तो लगता है कि छठ पूजा की शुरुआत तब की है जब मानव सभ्यता सिर्फ फल-फूल और कंदमूल पर जी रही था और मिठाई बनाना नहीं सीखा था या सुव्यवस्थित खेती का विकास नहीं हुआ था. समाज में वर्ण-व्यवस्था स्थापित नहीं हुई थी या अपने शुरुआती रूप में थी.
कुल मिलाकर इतना कहा जा सकता है कि छठ पर्व समाजिक समरसता और उदारता का बड़ा प्रतीक पर्व है और शायद यहीं इसकी लोकप्रियता का कारण भी है.
इसमें अगर हम प्राचीन मिथिला की उदार जनक-परंपरा और बाद के युग में क्षेत्र का बौद्ध धर्म के प्रभाव में होना भी जोड़ दें-तो उदार परंपराओं की एक श्रृंखला बन जाती है. बहरहाल, छठ पर्व पर अभी कई दृष्टिकोण आने बाकी हैं.
(इस लेख में सूर्योपासना के संदर्भ पेंगुइन हिंदी के संपादक, लेखक और सामाजिक विश्लेषक सुशांत झा से बातचीत के आधार पर लिखे गए हैं)
FB link :